हिंदी पर राजनीति: ठाकरे बंधुओं का विरोध सिर्फ चुनावी चाल?

मुंबई:महाराष्ट्र में हिंदी भाषा को लेकर राजनीति फिर गरमा गई है। मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस द्वारा कक्षा एक से पांच तक हिंदी अनिवार्य करने के फैसले पर उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे आक्रामक हो गए और दोनों ने मिलकर हिंदी के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया। हालांकि मुख्यमंत्री ने बाद में अपना निर्णय वापस ले लिया, लेकिन ठाकरे बंधुओं का विरोध जारी है। महाराष्ट्र में भाषा को लेकर राजनीति का इतिहास रहा है। पहले बाल ठाकरे ने दक्षिण भारतीयों को निशाना बनाया और फिर राज ठाकरे ने उत्तर भारतीयों के खिलाफ अभियान चलाया। अब हिंदी पर राजनीति हो रही है, जबकि महाराष्ट्र में हिंदी की जड़ें गहरी रही हैं। शिवाजी महाराज ने अपने दरबार में हिंदी कवि भूषण को सम्मान दिया था और बाल गंगाधर तिलक ने हिंदी को देश का तिलक कहा था।
हिंदी विरोध की यह राजनीति तब और अजीब लगती है जब देखा जाए कि महाराष्ट्र हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार का केंद्र रहा है। महात्मा गांधी ने दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की स्थापना की और बॉलीवुड, जो पूरी तरह हिंदी पर आधारित है, मुंबई से ही संचालित होता है। आम जनता में हिंदी को लेकर कोई विरोध नहीं है। लोग हिंदी आसानी से समझते और बोलते हैं, भले ही उनकी बोली में स्थानीयता झलकती हो। मराठी और हिंदी दोनों इंडो-आर्यन भाषाएं हैं, दोनों की लिपि देवनागरी है, फिर भी राजनीतिक लाभ के लिए भाषा को विवाद का विषय बनाया जा रहा है।
असल में ठाकरे बंधुओं का यह विरोध निकाय चुनावों में अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने का प्रयास नजर आता है। हिंदी देश की प्रचलन की भाषा है और भारत व उपमहाद्वीप में करोड़ों लोग इसे बोलते हैं। लोग मुंबैया हिंदी, कलकतिया हिंदी या तमिलियन हिंदी को सहजता से अपना लेते हैं। हिंदी का बाज़ार और प्रभाव लगातार बढ़ रहा है। ऐसे में भाषा को लेकर विवाद खड़ा करना केवल राजनीति का हिस्सा दिखता है, न कि जनता की वास्तविक भावना।





