अंतरिक्ष यात्री स्पेस में टॉयलेट कैसे करते हैं? क्या उनका मल वहीं छोड़ दिया जाता है?

जब भी हम अंतरिक्ष यात्रियों को स्पेस में तैरते हुए देखते हैं, तो यह सवाल मन में जरूर आता है कि शून्य गुरुत्वाकर्षण (Zero Gravity) में वे अपनी रोज़मर्रा की जरूरतें कैसे पूरी करते होंगे। खासकर टॉयलेट जैसी बुनियादी जरूरतों को!

आपको जानकर हैरानी होगी कि अंतरिक्ष में भी खास तरह के हाई-टेक टॉयलेट मौजूद होते हैं, जो वैज्ञानिक तकनीकों से लैस होते हैं। आइए जानते हैं कि अंतरिक्ष यात्री शौच और पेशाब जैसे काम कैसे करते हैं और उनका मल आखिर कहां जाता है?

अंतरिक्ष में कितना मानव मल इकट्ठा हुआ है?
कुछ समय पहले NASA ने एक अनोखे चैलेंज “लूनार रिसाइकल चैलेंज” (Lunar Loo Challenge) की घोषणा की थी, जिसमें अंतरिक्ष के टॉयलेट वेस्ट को रिसाइकिल करने के इनोवेटिव आइडियाज मांगे गए थे। विजेता को मिलने वाला इनाम था करीब 30 लाख डॉलर (लगभग ₹26 करोड़)।

इसी दौरान सामने आया कि अपोलो मिशन के समय 96 बैग गंदगी चंद्रमा पर छोड़ दी गई थी। यह जानकर सवाल उठता है – क्या इंसानी मल को वहीं छोड़ दिया जाता है? और ऐसा क्यों किया जाता है?

क्यों स्पेस में ही छोड़ आते हैं अंतरिक्ष यात्री पूप?
स्पेस में टॉयलेट एक खास वैक्यूम सिस्टम पर आधारित होता है। जब कोई एस्ट्रोनॉट टॉयलेट करता है तो मल एक सील बंद टैंक में इकट्ठा हो जाता है। इसके बाद:
इस टैंक को एक स्पेशल कार्गो कैप्सूल में भर दिया जाता है

जब यह कैप्सूल पृथ्वी के वायुमंडल में वापस आता है, तो जल कर राख हो जाता है

इससे स्पेस में कचरा नहीं तैरता और कोई स्पेस डेब्रिस (Space Debris) भी नहीं बनता

इसलिए मल को स्पेस में छोड़ने की बजाय वायुमंडल में जलाने का सिस्टम अपनाया गया है।

अंतरिक्ष में टॉयलेट कैसे काम करता है?
स्पेस में गुरुत्वाकर्षण नहीं होता, इसलिए टॉयलेट भी खास डिज़ाइन का होता है:

वैक्यूम टॉयलेट
हवा की खींच (suction) से मल और मूत्र को खींचकर टैंक में जमा करता है

एस्ट्रोनॉट्स को हैंडहोल्ड और फुटहोल्ड की मदद से टॉयलेट सीट पर बैठाया जाता है ताकि वे उड़ न जाएं

पेशाब के लिए खास पाइप
वैक्यूम पाइप से जुड़ा एक ट्यूब होता है

पुरुष और महिला एस्ट्रोनॉट्स के लिए अलग-अलग अटैचमेंट्स होते हैं

क्या यूरिन को रिसाइकल किया जाता है?
जी हां! स्पेस मिशन में पानी की कमी को देखते हुए यूरिन को फिल्टर और प्रोसेस करके फिर से पीने योग्य बनाया जाता है। इससे न सिर्फ पानी बचता है, बल्कि यह तकनीक भविष्य में चंद्रमा या मंगल जैसे मिशनों के लिए बेहद फायदेमंद होगी।

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