बस्तर की होली क्यों है अलग? क्या है 610 सालों से चली आ रही परंपरा

रायपुर। बस्तर को उसकी अनोखी संस्कृति और परंपराओं के लिए जाना जाता है। यहाँ के लोक त्योहार, रीति-रिवाज और जीवनशैली बाकी भारत से अलग हैं। और होली भी इसका अपवाद नहीं है। भारत के ज्यादातर हिस्सों में होलिका दहन की कहानी भक्त प्रह्लाद और उनकी क्रूर बुआ होलिका से जुड़ी है। लेकिन बस्तर में ये कहानी गौण हो जाती है। यहाँ होलिका दहन का केंद्र है माँ दंतेश्वरी – बस्तर की आराध्य देवी। यहाँ होली सिर्फ बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक नहीं, बल्कि सुख, शांति और समृद्धि की प्रार्थना का माध्यम भी है।
बस्तर की होली की शुरुआत माड़पाल गाँव से होती है, जो जगदलपुर से करीब 17 किलोमीटर दूर है। यहाँ हर साल फाल्गुन पूर्णिमा की रात को एक खास परंपरा निभाई जाती है। माड़पाल में होलिका दहन के बाद इसकी आग के अंगारों को हंडी में लेकर जगदलपुर के दंतेश्वरी मंदिर तक पहुँचाया जाता है। फिर वहाँ से मावली माता के मंदिर के सामने दो होलिकाएँ जलाई जाती हैं – एक मावली माता के लिए और दूसरी भगवान जगन्नाथ के लिए। ये परंपरा बस्तर की शाही विरासत और धार्मिक आस्था का प्रतीक है। लेकिन सवाल ये है कि आखिर ये परंपरा शुरू कैसे हुई? और ये बाकी जगहों से इतनी अलग क्यों है? चलिए, इस रहस्य को खोलते हैं।
बस्तर की होली की कहानी हमें ले जाती है 600 साल से भी ज्यादा पीछे, जब बस्तर पर राजा पुरुषोत्तम देव का शासन था। इतिहास बताता है कि 15वीं शताब्दी में राजा पुरुषोत्तम देव एक तीर्थ यात्रा पर जगन्नाथ पुरी गए थे। वहाँ उन्होंने भगवान जगन्नाथ की सेवा की और उन्हें “रथपति” की उपाधि मिली। जब वो अपने लाव-लश्कर के साथ बस्तर लौट रहे थे, तो फाल्गुन पूर्णिमा की रात को उनका काफिला माड़पाल गाँव में रुका। गाँव वालों ने राजा से आग्रह किया कि वो उनके साथ होलिका दहन करें।
राजा ने इस आग्रह को सहर्ष स्वीकार किया। उन्होंने बैलगाड़ी पर सवार होकर होलिका दहन स्थल तक यात्रा की और माँ दंतेश्वरी की पूजा-अर्चना के बाद होली जलाई। ये वो पल था जब बस्तर में होली की ये अनोखी परंपरा शुरू हुई। तब से लेकर आज तक, हर साल बस्तर का राजपरिवार माड़पाल पहुँचता है और इस रिवाज को निभाता है। माना जाता है कि ये परंपरा 610 साल पहले शुरू हुई थी, यानी साल 1415 के आसपास। और आज भी ये परंपरा उतने ही जोश और श्रद्धा के साथ जीवित है।
पहले माड़पाल में होली जलने के बाद इसके अंगार घुड़सवारों के जरिए राजमहल तक ले जाए जाते थे। फिर वहाँ से मावली माता के मंदिर के सामने होली जलाई जाती थी, और इस आग से पूरे शहर और मोहल्लों में होलिका दहन होता था। लेकिन समय के साथ ये परंपरा अब माड़पाल और जगदलपुर तक सीमित हो गई है। फिर भी, इसकी भव्यता और आस्था आज भी वैसी ही है।
अब बात करते हैं कि माड़पाल में होलिका दहन कैसे होता है। फाल्गुन पूर्णिमा की रात करीब 11 बजे बस्तर राजपरिवार के सदस्य माड़पाल गाँव पहुँचते हैं। यहाँ दंतेश्वरी मंदिर में विधि-विधान के साथ पूजा-अर्चना होती है। इसके बाद एक खास चार पहियों वाला रथ तैयार किया जाता है। ये रथ बस्तर की शाही परंपरा का प्रतीक है। राजपरिवार के सदस्य इस रथ पर सवार होते हैं और गाजे-बाजे, आतिशबाजी के साथ होलिका दहन स्थल तक पहुँचते हैं।
होलिका दहन के बाद इसकी आग को एक हंडी में रखा जाता है। फिर राजपरिवार इस हंडी को लेकर जगदलपुर के दंतेश्वरी मंदिर के लिए रवाना होता है। रथ को रात भर होलिका दहन स्थल पर छोड़ दिया जाता है। अगले दिन गाँव के पुजारी पूजा-पाठ करते हैं, और बकरे की बलि देने के बाद रथ को एक निश्चित स्थान पर रख दिया जाता है। खास बात ये है कि बस्तर में हर तीन साल में एक नया रथ बनाया जाता है। बाकी दो सालों में पुराने रथ में नए लकड़ी के हिस्से जोड़े जाते हैं। ये परंपरा न सिर्फ धार्मिक है, बल्कि पर्यावरण के प्रति सम्मान को भी दर्शाती है।
जगदलपुर पहुँचने पर दंतेश्वरी मंदिर और मावली माता मंदिर के सामने दो होलिकाएँ जलाई जाती हैं। इसे “जोड़ा होली” कहते हैं। एक होली मावली माता को समर्पित होती है, और दूसरी भगवान जगन्नाथ को। इस दौरान हजारों लोग जुटते हैं, और रात से ही होली का उल्लास शुरू हो जाता है।
बस्तर की होली में माँ दंतेश्वरी और मावली माता का विशेष महत्व है। दंतेश्वरी मंदिर बस्तर की शक्ति का केंद्र है। ये मंदिर न सिर्फ धार्मिक, बल्कि सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। माना जाता है कि माँ दंतेश्वरी बस्तर के लोगों की रक्षा करती हैं। इसलिए होलिका दहन से पहले उनकी पूजा अनिवार्य है।
वहीं, मावली माता बस्तर की कुलदेवी मानी जाती हैं। जगदलपुर में मावली मंदिर के सामने होली जलाना एक प्राचीन रिवाज है। दंतेश्वरी मंदिर के मुख्य पुजारी कृष्ण कुमार पाढ़ी के अनुसार, माड़पाल की होली बस्तर की सुख-शांति के लिए जलाई जाती है। ये परंपरा रियासत काल से चली आ रही है, और इसका उद्देश्य बस्तर की समृद्धि और सुरक्षा की कामना करना है।
यहाँ एक और खास बात है। बस्तर में होली का संबंध भगवान जगन्नाथ से भी जोड़ा जाता है। राजा पुरुषोत्तम देव की जगन्नाथ पुरी यात्रा ने इस परंपरा को जन्म दिया। इसलिए होली में जगन्नाथ स्वामी की पूजा भी शामिल की जाती है। ये त्रिवेणी संगम – दंतेश्वरी, मावली माता और जगन्नाथ – बस्तर की होली को और भी खास बनाता है।
समय के साथ बस्तर की होली में कुछ बदलाव भी आए हैं। पहले माड़पाल से अंगार लेकर पूरे बस्तर में होलिका दहन होता था। घुड़सवार इस आग को गाँव-गाँव तक पहुँचाते थे। लेकिन आज बस्तर की बढ़ती आबादी और आधुनिकता के कारण ये परंपरा सिर्फ माड़पाल और जगदलपुर तक सीमित हो गई है। अब हर गाँव और मोहल्ले में लोग खुद होलिका दहन करते हैं।