जानिए क्या है द्वितीय विश्वयुद्ध और धमतरी जिले का नाता ?

रायपुर। छत्तीसगढ़ के धमतरी का नाम भले ही, किसी बड़े युद्ध से नहीं जुड़ा हो, लेकिन इसका द्वितीय विश्व युद्ध से ऐतिहासिक संबंध रहा है… अंग्रेजों ने धमतरी को अपना मुख्य आपूर्ति केंद्र बनाया था.. दरअसल जब हिटलर की फौज से ब्रिटिश सेना यूरोप में जंग लड़ रही थी…  तब युद्धपोतों और रेलवे स्लीपरों के निर्माण के लिए धमतरी के घने जंगलों से साल और सागौन की लकड़ियों की आपूर्ति की जा रही थी।

1937 से 1945 के बीच धमतरी ब्रिटिश हुकूमत के लिए एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया था, जहां लकड़ी का उत्पादन और सप्लाई युद्ध रणनीति का अहम हिस्सा था। अंग्रेजों ने यहां के जंगलों की बेहतरीन क्वालिटी और भारी मात्रा में उपलब्ध लकड़ी को देखते हुए इसे अपने सैन्य उद्देश्यों के लिए चुना और आधुनिकतम प्रोडक्शन सिस्टम और सप्लाई नेटवर्क स्थापित किया। धमतरी की लकड़ियों से बने रेलवे स्लीपरों और युद्धपोतों ने ब्रिटिश सेना को जर्मनी के खिलाफ मजबूती प्रदान की, और यह सप्लाई चेन सीधे यूरोप तक फैली थी।

धमतरी में उस दौर में बिजली नहीं थी, इसलिए लकड़ी चीरने और स्लीपर बनाने के लिए भाप से चलने वाली स्टीम सा मशीनों का इस्तेमाल किया जाता था, जो रेल इंजन के सिद्धांत पर काम करती थीं। ये मशीनें लकड़ी को चीरकर उसे युद्ध सामग्री में तब्दील करने के लिए उपयोग की जाती थीं, और इन्हीं मशीनों से तैयार सागौन की लकड़ी विशाखापट्टनम बंदरगाह के जरिए यूरोप भेजी जाती थी। और यही कारण है कि अंग्रेजों ने धमतरी को अपना मुख्य आपूर्ति केंद्र बनाया और यहां से लकड़ी की निर्बाध सप्लाई सुनिश्चित करने के लिए 200 किलोमीटर लंबी रेल लाइन बिछाई, जो रायपुर से ओडिशा की सीमा तक फैली थी। अंग्रेजों ने जंगलों में काम करने के लिए खल्लारी, बहीगांव, माडमसिल्ली, दुगली, बनरीद और धमतरी में अपने रेस्टहाउस बनाए, जो आज भी अस्तित्व में हैं।

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब 1939 से 1945 तक जर्मनी के खिलाफ ब्रिटिश सेना ने युद्ध लड़ा, तब धमतरी का लकड़ी उत्पादन पूरी तरह से इस युद्ध में खपाया गया। अंग्रेजों ने इसे अपने सैन्य अभियानों में प्रयोग कर जर्मनी पर दबाव बनाए रखा। युद्ध समाप्त होने के कुछ वर्षों बाद भारत स्वतंत्र हो गया और अंग्रेज देश छोड़कर चले गए, लेकिन उनके द्वारा बिछाई गई रेल लाइनें और औद्योगिक ढांचे रह गए। कई दशकों तक धमतरी से रायपुर तक यात्री ट्रेनों का संचालन भी होता रहा, लेकिन समय के साथ भाप से चलने वाली मशीनों की उपयोगिता समाप्त हो गई और वे जंगलों में बेकार पड़ी रहीं।

सालों बाद जब कुछ अफसरों को इन मशीनों के ऐतिहासिक महत्व की जानकारी मिली, तो उन्हें दुगली और सांकरा के जंगलों से निकालकर धमतरी वनमंडल कार्यालय में संरक्षित किया गया… और आज भी वहां तीन स्टीम सा मशीनें मौजूद हैं, जो इस गौरवशाली इतिहास की गवाह हैं। वन विभाग ने इन्हें अपने स्तर पर संरक्षित कर रखा है, लेकिन इनके ऐतिहासिक महत्व को देखते हुए इन्हें और बेहतर तरीके से सहेजने की जरूरत है ताकि आने वाली पीढ़ियां भी जान सकें कि किस तरह धमतरी का नाम द्वितीय विश्व युद्ध के इतिहास में दर्ज है…

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