विपक्ष की उम्मीदों को तगड़ा झटका, धनखड़ के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव खारिज
राज्यसभा के सभापति और उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के खिलाफ विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस उप सभापति ने खारिज कर दिया। जिससे विपक्ष को बड़ा झटका लगा है। यह मामला इस समय चर्चा में है, क्योंकि राज्यसभा सभापति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाना एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है। लोकतांत्रिक इतिहास में यह पहला अवसर है जब राज्यसभा के सभापति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया ।
नई दिल्ली: संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में पहली बार विपक्ष ने राज्यसभा सभापति, जो कि उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ हैं, के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दिया था। हालांकि,राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ के खिलाफ विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस उप सभापति ने खारिज कर दिया. , जिससे विपक्ष को बड़ा झटका लगा है। यह मामला इस समय चर्चा में है, क्योंकि राज्यसभा सभापति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाना एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है।
विपक्ष द्वारा अविश्वास प्रस्ताव नोटिस
राज्यसभा में विपक्षी दलों ने उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 67बी के तहत नोटिस दिया था। इस नोटिस पर 60 सांसदों ने हस्ताक्षर किए थे, जिसमें आरोप लगाया गया था कि धनखड़ ने सदन में पक्षपाती बर्ताव किया है और विपक्षी दलों के खिलाफ अनुकूल नीतियां अपनाई हैं। इस नोटिस को राज्यसभा महासचिव पीसी मोदी को सौंपा गया था।
संसदीय इतिहास में पहली बार
गौरतलब है कि भारतीय संसद के 72 साल के लोकतांत्रिक इतिहास में यह पहला अवसर है जब राज्यसभा के सभापति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया। अब तक किसी भी राज्यसभा सभापति के खिलाफ ऐसा कोई कदम नहीं उठाया गया था, जो इस प्रस्ताव को और भी महत्वपूर्ण बना देता है।
नोटिस पर उठाए गए आरोप
विपक्ष ने उपराष्ट्रपति और राज्यसभा सभापति जगदीप धनखड़ पर आरोप लगाया कि वे सदन में निष्पक्ष नहीं रहते और लगातार पक्षपाती रुख अपनाते हैं। उनका कहना था कि धनखड़ ने कई अवसरों पर विपक्षी दलों के सांसदों के खिलाफ कठोर कार्रवाई की, जबकि सत्तारूढ़ पार्टी के सांसदों को छोड़ दिया। इन आरोपों के आधार पर अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था।
नोटिस पर शर्तें और प्रक्रिया
भारतीय संविधान और संसदीय नियमों के अनुसार, किसी भी सभापति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने के लिए कम से कम 14 दिन पहले नोटिस देना आवश्यक होता है। जबकि संसद का शीतकालीन सत्र 20 दिसंबर तक चलने वाला था, इसका मतलब था कि समय बहुत कम था और इसे पेश करना मुश्किल हो सकता था।